चुपचाप लिखकर अमर हो गए शब्दों के साधक: विनोद कुमार शुक्ल को श्रद्धांजलि
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Vinod-Kumar-Shukla-Death
सादगी और संवेदना से भरा विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य.
शांत भाषा में गहरी मानवीय अनुभूतियों की अभिव्यक्ति.
हिंदी साहित्य में साधारण जीवन को अमर करने वाला योगदान.
Nagpur / एक शांत जीवन, जो साहित्य बन गया, हिंदी साहित्य ने जब-जब शोर से अलग खड़े होकर मनुष्य के भीतर झांकने वाले लेखकों को पहचाना है, तब-तब विनोद कुमार शुक्ल का नाम आदर और विनम्रता के साथ लिया गया है। उनका जीवन स्वयं में किसी कथा की तरह था। बिना नाटकीय मोड़ों के, बिना किसी आत्मप्रचार के, बिना मंचों की चकाचौंध के। 1 जनवरी 1937 को छत्तीसगढ़ की मिट्टी में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल उसी मिट्टी की गंध को अपने साथ जीवन भर ढोते रहे। उन्होंने जीवन को बहुत करीब से देखा, उसकी सीमाओं, उसकी चुप्पियों, उसकी छोटी-छोटी खुशियों और उसकी अदृश्य पीड़ाओं को। वे किसी बड़े शहर या साहित्यिक केंद्र के लेखक नहीं थे, बल्कि साधारण जीवन जीने वाले असाधारण संवेदना से भरे व्यक्ति थे। अध्यापन से जुड़ा उनका जीवन उन्हें आम लोगों के और करीब ले गया। छात्र, सहकर्मी, पड़ोसी, पेड़, रास्ते, घर सब उनके जीवन का हिस्सा बने और धीरे-धीरे उनकी रचनाओं में उतरते चले गए। उन्होंने कभी स्वयं को “महान लेखक” की तरह प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि एक सामान्य मनुष्य की तरह जिया, और शायद यही कारण है कि उनका साहित्य असामान्य होते हुए भी आत्मीय है। आज जब हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं, तो ऐसा लग रहा है कि कोई बहुत अपना, बहुत चुप रहने वाला, बहुत धीरे बोलने वाला व्यक्ति हमारे बीच से चला गया है, लेकिन उसकी उपस्थिति अब भी शब्दों में सांस ले रही है।
लेखन की वह भाषा, जो बोलती नहीं, ठहरती है विनोद कुमार शुक्ल का लेखन किसी उद्घोषणा की तरह नहीं आता, वह धीरे से पाठक के पास बैठ जाता है। उनकी भाषा इतनी सरल है कि पहली बार पढ़ने वाला सोच सकता है कि इसमें विशेष क्या है, लेकिन जैसे-जैसे पाठक आगे बढ़ता है, वही सरलता भीतर गहरी हलचल पैदा करने लगती है। उन्होंने कभी शब्दों का प्रदर्शन नहीं किया, न ही विचारों का बोझ पाठक पर डाला। उनके वाक्य छोटे होते थे, पर उनके भीतर जीवन का बड़ा विस्तार छिपा होता। उनकी रचनाओं में जो मौन है, वही सबसे ज्यादा बोलता है। वे उस अकेलेपन को लिखते हैं, जिसे लोग अक्सर महसूस तो करते हैं, लेकिन कह नहीं पाते। उनका लेखन किसी विचारधारा का शोर नहीं करता, बल्कि मानवीय करुणा की धीमी धड़कन की तरह चलता है। वे दुख को भी इस तरह लिखते हैं कि वह चीख नहीं बनता, बल्कि एक ठहरी हुई पीड़ा बनकर मन में उतरता है। उनकी कविताओं और गद्य में प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं होती, बल्कि एक जीवित साथी की तरह मौजूद रहती है। पेड़, हवा, आकाश, घर सब उनके लेखन में मनुष्य के साथ संवाद करते हैं। आज जब साहित्य में तीव्रता, आक्रोश और तीखे स्वर अधिक दिखाई देते हैं, तब विनोद कुमार शुक्ल का लेखन हमें याद दिलाता है कि संवेदना की सबसे गहरी अभिव्यक्ति अक्सर सबसे शांत होती है। उन्हें पढ़ना किसी तेज़ नदी में उतरना नहीं, बल्कि किसी शांत तालाब के किनारे बैठकर अपने भीतर झांकना है।
कृतियाँ, जो साधारण जीवन को अमर कर गईं विनोद कुमार शुक्ल की कृतियाँ हिंदी साहित्य की ऐसी धरोहर हैं, जो समय के साथ और अधिक मूल्यवान होती रहेंगी। उनका उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ केवल एक कहानी नहीं, बल्कि उस आम आदमी की आत्मकथा है, जो बड़े सपने नहीं देखता, लेकिन अपने छोटे से जीवन में भी गरिमा खोजता है। यह उपन्यास हमें सिखाता है कि साहित्य के नायक हमेशा असाधारण नहीं होते, बल्कि वे भी हो सकते हैं, जो हर दिन की साधारण लड़ाइयाँ लड़ते हैं। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ और ‘खिलेगा तो देखेंगे’ जैसे उपन्यासों में उन्होंने उम्मीद को भी बहुत संयमित ढंग से रखा। बिना उत्साह की अतिशयोक्ति के, बिना निराशा के शोर के। उनकी कविताएँ शब्दों से ज्यादा अनुभूतियों की रचनाएँ हैं। वे छोटी-छोटी पंक्तियों में पूरे जीवन को समेट लेते हैं। उनकी कविताओं में घर बहुत आता है। शायद इसलिए कि घर उनके लिए सिर्फ एक जगह नहीं, बल्कि भावनात्मक संसार था। उन्होंने बच्चों के लिए भी लिखा, और यह अपने आप में बताता है कि उनका मन कितना निर्मल और संवेदनशील था। उनकी हर कृति यह प्रमाण देती है कि उन्होंने साहित्य को जीवन से अलग नहीं माना। उन्होंने कभी यह नहीं दिखाया कि वे लिख रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि वे जीते हुए लिखते चले गए। आज उनकी रचनाएँ हमें यह एहसास कराती हैं कि कुछ लेखक किताबों से नहीं, बल्कि अपने अनुभवों से इतिहास रचते हैं।
विदाई नहीं, एक स्थायी उपस्थिति के तौर पर विनोद कुमार शुक्ल को याद करना केवल एक साहित्यकार को याद करना नहीं है, बल्कि उस दृष्टि को याद करना है, जो दुनिया को बहुत धीरे और बहुत प्यार से देखती थी। वे हमारे समय के उन विरले लेखकों में से थे, जिन्होंने यह साबित किया कि साहित्य का उद्देश्य केवल प्रश्न उठाना नहीं, बल्कि मनुष्य को मनुष्य के और करीब लाना भी है। उन्हें मिले सम्मान और पुरस्कार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण वह मौन सम्मान है, जो पाठकों के मन में उनके लिए है। आज जब हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं, तो यह महसूस होता है कि वे वास्तव में गए नहीं हैं। वे अपनी पंक्तियों में, अपनी चुप्पियों में, अपनी सरल भाषा में अब भी मौजूद हैं। हर वह पाठक, जो जीवन की भागदौड़ से थककर कुछ देर ठहरना चाहता है, विनोद कुमार शुक्ल के साहित्य में शरण पा सकता है। वे हमें सिखाते हैं कि जीवन को समझने के लिए तेज़ होना जरूरी नहीं, संवेदनशील होना जरूरी है। हिंदी साहित्य उन्हें एक ऐसे लेखक के रूप में हमेशा याद रखेगा, जिसने बिना ऊँची आवाज़ के भी बहुत गहरी बात कह दी। उनकी स्मृति को शब्दों में समेटना संभव नहीं, लेकिन यह कहना शायद पर्याप्त है कि विनोद कुमार शुक्ल अपने लेखन के कारण नहीं, बल्कि अपनी मानवीय दृष्टि के कारण अमर हैं। यह लेख उन्हीं शब्दों के साधक को विनम्र श्रद्धांजलि है, जिनके लिए सादगी ही सबसे बड़ा सौंदर्य थी।